Wednesday, March 12, 2008

मोड़ पर छूट गई सुबह

मोड़ पर छूट गई सुबह

हाथों पर से फिसलते हुए हाथ

उँगलियों के सिरे जो आखिरी सम्पर्क थे

एक चीख से टूटी नींद

कुछ जल्दी आ गई बस उस रोज

निशान जो वहाँ थे साथ के

मिट गए क्या?

सुबह को वहाँ देखा क्या?

मोड़ पर छूट गई सुबह

अब सब है पर सुबह नहीं

वह रोशन सूरज जो करता था सुबह

वह नहीं है

आईने में उसे देखा क्या?

कलरव जो उठाता था मुझे

उसे सुना क्या?

मोड़ पर छूट गई सुबह...

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