Monday, October 6, 2008

उस रोज मैं बहुत दूर निकल आया
पर ये क्या मेरा हाथ थामें ये कौन
ये तुम्हारी याद साथ ही
चली, उठी, बैठी और रही,
फुर्सत के हर लम्हे दिखी
और बाकि दिन भर छिपी,
भागना चाहा मैंने इससे,
पर ये तुमसे जुदा थी
तुम तो जैसे रेत पड़ी एक लकीर थी,
उस रोज लहर के साथ हो ली,
और तुम्हारी याद,
ये तो पत्थर से लिपटी लकीर की तरह,
लहर दर लहर...रही अनमिट, अकाट.

4 comments:

Me said...

Well...being a poetry fan... I really reaaly loved it :)

Keep surprising us with many more such posts.

Sneha Shrivastava said...

Awesome !!

Sneha Shrivastava said...

HAPPY DUSHEHRA !!

Anonymous said...

hey read ur post on mehrauli blast!! too gud