Saturday, October 18, 2008

कोशिशे मायूस हो...

कोशिशे मायूस हो...
बैठ गई है किनारे पर
और तुम्हें पता है?
भटक भी भटक गई आज
तलाश की तलाश में गए थे
कल और परसों मेरे
अंदर का सन्नाटा तुम्हारे सामने है
ये जो नई सिलवटें है
क्या ये पुराने दर्द की करवटें है
उदास रेखाओं के बीच फसे हजारों सवाल है
कोशिशे मायूस हो...
बैठ गई है किनारे पर
पतझड़ की शाख सा तुम्हारा चेहरा ऐसा
की ग़म का एक तिनका भी ना टिका
कुछ इतना गहरा हो चला है सन्नाटा
की अब शोर भी आवाज है चाहता
अजीब असमंजस है
बेरूह है बेजान नहीं
लकीरें गहरी है पर निशाँ नहीं...